भरतमुनि का इतिहास

भरतमुनि का इतिहास, नाट्यशास्त्र का परिचय , जड़ भरत की कथा, भरत मुनि ने किस शास्त्र की रचना की थी, भरतमुनि के अनुसार रसों की संख्या कितनी है

भरतमुनि का इतिहास 

नाट्य शास्त्र के रचयिता महर्षि भरत का काल 500 ईसा पूर्व माना गया है तीसरी चौथी शताब्दी के पंचतंत्र जैसे कुछ ग्रंथों में भी भरत का उल्लेख मिलता है ‘नाट्य शास्त्र’ के अनुसार भरत को नाट्य का उपदेश ‘ब्रह्मा’ से प्राप्त हुआ था ‘भागवत, विष्णु पुराण और मत्स्य पुराण के अनुसार भरत मनु वंशीय राजा ऋषभदेव के पुत्र थे जो कर्नाटक चले गए थे जहां उन्होंने नाट्य शास्त्र की रचना की थी भरतनाट्यम का प्रचार भी वहीं से हुआ था

अभिनव गुप्त के अनुसार नाट्य शास्त्र की रचना सर्वप्रथम सदाशिव ने की थी जिनसे ब्रह्मा ने और ब्रह्मा से भरत ने  ग्रहण किया सदाशिव ही आदि भरत थे इसलिए नाट्य वेद के आदि- आचार्य के रूप में महर्षि भरत को माना गया है पर्वती आचार्यों ने भरत को भगवान भरत कहकर भी संबोधित किया है ‘नाट्य शास्त्र’ के अनुसार महर्षि भरत ने अपने 100 पुत्रों को नाट्य वेद की शिक्षा प्रदान करते हुए उसे ‘लोक’ में प्रतिष्ठित करने का आदेश दिया था “मत्स्यपुराण” में नाट्यशास्त्र के प्रवर्तक भरत मुनि की चर्चा है

जिन्होंने देवलोक में “लक्ष्मी स्वंयबर” नाटक की रचना की, ईसा पूर्व प्रथम सती के महाकवि कालिदास ने इस कथा की ओर संकेत करते हुए भरतमुनि के नाम एवं कृति का उल्लेख किया है नाट्य शास्त्र में उपलब्ध अनुश्रुति महर्षि भरत को महाराज अनुश का समकालीन बताती है जो भगवान राम से पीढ़ियों पूर्व हुए हैं आधुनिक शोधों के परिणाम स्वरूप एक वैदिक कालीन नरेश सिद्ध हो चुके हैं वाल्मीकि नारायण का साक्ष्य भरत के सिद्धांतों से वाल्मीकि का पूर्णतया परिचित होना सिद्ध करता है वाल्मीकि पाणिनि भरतमुनि से पूर्व हुए हैं 

महर्षि भरत ने नाट्यशास्त्र के समस्त अंगों पर तो विचार किया ही है, इसके साथ संगीत के मूलभूत सिद्धांत को भी वैज्ञानिक ढंग से प्रकाशित किया है नाट्यशास्त्र के 35वें अध्याय में भरत ने नाट्य से संबंधित व्यक्तियों की चर्चा करते हुए कार्य के अनुसार भरतो का विभाजन बताया है इससे सिद्ध होता है कि भरत शब्द इतना व्यापक हो गया था कि उसने समस्त कलाकारों को अपने में समेट लिया था

आगे चलकर उन भरतो को अलग अलग नाम से पुकारा गया जैसे-मुख्य अभिनेता, उप अभिनेता, अभिनेता, विदूषक, गायक, बाधक,  नर्तक, सूत्रधार आदि कालांतर में भरत के पुत्र अपने उपद्रव के कारण शापित हो गए थे परिणाम स्वरूप उच्च या भद्र समाज में संगीत- विद्या को केवल मनोरंजन की वस्तु समझकर उससे संबंधित व्यक्तियों को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा वर्तमान काल में नाट्य को “रंजन” की दृष्टि से देखा जाता है जबकि वह भोग और मोक्ष दोनों को प्रदान करने वाली कला है

 प्राचीन ग्रंथों में भरत कृत नाट्यशास्त्र के दो संस्करणों का उल्लेख पाया जाता है पहला 12 हजार श्लोक वाला और दूसरा 6000 श्लोक वाला विदेशी संक्रमण और आक्रमणों से भी नाट्य और नट  के उच्च स्तर को धक्का पहुंचा भरत ने नाट्यशास्त्र में स्पष्ट लिखा है कि ऐसी कोई कला नहीं है, ऐसी कोई विद्या नहीं है, ऐसा कोई शिल्प नहीं है और ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जो नाटक के माध्यम से प्रस्तुत न किया जा सके

यह धार्मिक, कामुक, शूरवीर, नपुसंक, दुखी ,परिश्रम से थके हुए लोगों एवं तपस्वी  इत्यादि के लिए विश्राम और शांति प्रदान करने वाला है नाट्यशास्त्र बुद्धिमान को ज्ञान और मूर्ख व्यक्तियों को उपदेश प्रदान करने वाला है महाकवि कालिदास ने भरत को नाट्य शास्त्र का प्रवर्तक,आठ और अशोका प्रतिपादक तथा देवताओं केसमक्ष अभिनय को प्रयोक्ता कहा है भरत ने गीत को नाटक की सैया मानते हुए उसे नाट्य का प्रमुख अंग और वादन तथा नर्तन को उसका अनुगामी बताया है ‘नाट्यशास्त्र’ केवल भारत ही नहीं बल्कि विश्व की नाट्य कला का आधार ग्रंथ है महर्षि भारत के आपत वाक्य सनातन और सार्वभौम है | भरतमुनि का इतिहास |

नाट्यशास्त्र का परिचय 

नाट्य संबंधी नियमों की संहिता और शास्त्रीय ज्ञान का नाम ही ‘नाट्यशास्त्र’ है भारतीय परंपरा के अनुसार नाट्यशास्त्र के आद्य रचयिता स्वयं प्रजापति माने गए हैं और उसे नाट्य वेद कहकर नाटक कला को उचित सम्मान प्रदान किया गया है जिस प्रकार परम पुरुष के नि:श्वास से आवीरभूत वेदराशि के दृष्टा विविध ऋषि परकल्पित है उसी तरह महादेव द्वारा परोक्त नाट्यवेद के द्रष्टटा शिलाली भरतमुनि माने गए हैं इनके द्वारा संकलित नाटक संहिता है आज उपलब्ध नहीं है केवल भरत मुनि द्वारा प्रणीत ग्रंथ उपलब्ध हुआ है जो नाट्यशास्त्र के नाम से प्रसिद्ध है इसका प्रणयन संभवत है

कश्मीर ,भारत देश में हुआ है नाट्यशास्त्र के सबसे पहले रचयिता ब्रह्मा प्रजापति को माना गया है अभिनय के विविध रंग एवं उपायों के स्वरूप और प्रयोग के आकार प्रकार का विवरण प्रस्तुत कर तत्ससंबंधी नियम तथा व्यवहार को निर्धारित करने वाला शास्त्र ‘नाट्यशास्त्र’ है अभिनय के अनुरूप स्थान को नाट्यगृह कहते हैं जिसके प्रकार निर्माण एवं साज-सज्जा के नियमों का प्रतिपादन भी नाट्यशास्त्र का ही विषय है विविध श्रेणी के अभिनेता एवं अभिनेत्री के व्यवहार और अभिनय के निर्देशन एवं निर्देशक के कर्तव्यों का विवरण भी नाट्यशास्त्र की व्यापक परिधि में समाविष्ट है | भरतमुनि का इतिहास |

 जड़ भरत की कथा

जड़ भरत जी पूर्व जन्म में एक राजा थे इनके पास सभी सुख सुविधाएं थी परंतु अचानक इनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और वैसे नसीबन गई इसके बाद इन्होंने गंडकी नदी के किनारे अपनी कुटिया बना ली और वहीं पर रहने लगे और दिन-रात भगवान का भजन करने लग गए एक दिन वह नदी में स्नान कर रहे थे तभी वहां एक गर्भवती हिरणी आई जिसे एक शेर ने घायल कर दिया था उस हिरणी ने उनके आश्रम के पास बच्चे को जन्म दिया और जन्म देने के बाद अपने प्राण त्याग दिए

इसके बाद  जड़ भरत ने उस बच्चे को उठा लिया और उसका भरण पोषण करने लगे इसके बाद वह हिरण के बच्चे के साथ इतने घुल मिल गए कि उनकी भक्ति और साधना छूट गई जब उनका अंत समय आया तो उनके मन में वह हिरण आ गया श्रीमद् भगवतगीता में बताया गया है कि व्यक्ति अपने अंतिम समय में जिसका भी चिंतन करता है आगे उसे वही मिलता है मृत्यु के बाद उस सन्यासी ने हिरण के रूप में  जन्म लिया और वह सूखे पत्ते ही खाते थे ताकि हरे पत्तों में कोई जीव जंतु ना हो

जब इनकी हिरण की योनि पूरी हुई तब हिरण योनि में की गई तपस्या का फल मिला और यह एक ब्राह्मण के घर जन्मे थे पूर्व जन्मों की समृति होने के कारण यह गूंगे बनकर रहने लगे जिसके कारण इनके घर वालों ने इन्हें जड़ यानी मूर्ख समझ लिया थोड़ा समय के बाद इनके घर वालों ने इन्हें घर से निकाल दिया फिर यह मन ही मन बहुत ही खुश हुए और जंगल में चले गए | भरतमुनि का इतिहास |

 

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