गुरु राम दास जी का इतिहास, गुरु राम दास जी का जन्म , गुरु रामदास जी के गुरु , समाज कल्याण के कार्य, गुरु राम दास जी की मृत्यु
गुरु राम दास जी का जन्म
गुरु रामदास जी सिक्खों के चौथे गुरु है गुरु राम दास जी का जन्म 1534 ईस्वी में लाहौर, चुना मंडी पाकिस्तान में हुआ था इनका जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था यह अपने पिता ‘हरिदास जी सोडी’ और माता दयाकोर की इकलौती संतान थे इनके पिताजी एक छोटी सी दुकान चला कर अपनी जीविका चलाते थे इनका बचपन का नाम जेठा था जब यह 7 वर्ष के हुए तब इनकी माता का देहांत हो गया और जब यह 9 वर्ष के हुए तब इनके पिताजी का देहांत हो गया था
मां-बाप के जाने के बाद गुरु रामदास जी बिल्कुल अनाथ हो गए थे इनकी नानी जी इन्हें अपने साथ “बासर” के गांव ले गई बहुत अधिक गरीब होने के कारण इनकी नानी जी इन्हें चने उबालकर देती थी और उन्हें बेचकर यह अपनी जीविका चलाते थे गुरु रामदास जी बचपन से ही बहुत ही धार्मिक ख्यालों के थे वह अपनी कमाई का कुछ हिस्सा साधु-संतों में बांटकर बहुत ही संतोष महसूस किया करते थे
गुरु रामदास जी के गुरु
बचपन में ही दुख देखने के कारण इनके अंदर वैराग्य की भावना उत्पन्न होती गई एक बार जब यह चने बेच रहे थे तब इनकी भेंट गुरु अमरदास जी से हुई जो सिखों के तीसरे गुरु थे उन दिनों गुरु अमरदास जी गोइंदवाल साहिब में रहा करते थे और वहीं पर संगत किया करते थे वहां पहुंचकर इन्होंने गुरु अमर दास जी के चरण स्पर्श किए कई सालों तक गुरु राम दास जी ने अमर दास जी की निस्वार्थ भाव से सेवा की थी और साथ ही अपना पेट भरने के लिए यह अपना चने बेचने का भी काम किया करते थे कुछ समय के बाद अमरदास जी ने इन्हें अपना प्रिय भगत बना लिया था इनकी सेवा भाव को देखकर गुरु अमरदास जी बहुत ही प्रभावित हुए इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री बीबी भानी का विवाह 18 फरवरी 1554 ईस्वी में गुरु रामदास जी से करवा दिया था
विवाह के उपरांत इन्होंने अमरदास जी को अपने ससुर के रूप में नहीं देखा बल्कि उन्हें अपना सतगुरु मानते थे गुरु जी के घर में रहकर अपनी पत्नी के साथ उनकी सेवा करते रहते एक बार अमरदास जी प्रभु साधना में लीन थे तभी अचानक गुरुजी जिस पीढ़ी पर बैठे थे उसका एक पाया टूट गया यह सारा दृश्य है उनकी पुत्री बीवी भानु देख रही थी इसके उसने अपना हाथ पीढ़ी के पाए की जगह रख दिया ताकि उनकी पिताजी की साधना में रुकावट ना आ सके जब गुरु जी की साधना पूर्ण हुई तब उन्होंने अपनी पुत्री जी के हाथ से खून बहता हुआ देखा तब उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारे त्याग से बहुत ही खुश हूं तुम जो मांगना चाहती हो वह वरदान मुझसे मांग सकती हो तब उनकी बेटी ने कहा कि पिता जी यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हो तो भविष्य में यह गुरु गद्दी इसी परिवार में रहे तब गुरु अमर दास जी ने अपनी पुत्री को वचन दिया कि तुम जैसा चाहती हो वैसा ही होगा परंतु गुरु गद्दी प्राप्त करने के बाद तुम्हारे परिवार को बहुत ही कष्ट सहने होंगे इसके बाद उनकी पुत्री ने यह बात स्वीकार कर ली | गुरु राम दास जी का इतिहास |
गुरु रामदास जी की परीक्षा
1 दिन गुरु अमर दास जी ने अपने दोनों दामादो गुरु रामदास और रामा को बुलाया और दोनों को एक-एक थड़ा बनाने की सेवा दी जिस पर गुरुजी अपना आसन बिछाकर बैठना चाहते थे इसके बाद उन दोनों ने अपने अपने हिसाब से दो थड़े बनाएं परंतु जब गुरूजी दूसरे दिन उनके थड़ो का निरीक्षण करने गए तो उन्हें दोनों के थड़े पसंद नहीं आए और उन्होंने आज्ञा दी कि यह दोबारा से बनाए जाएं इसके बाद उन दोनों ने फिर से अपने अपने थड़े दोबारा बनाएं परंतु दूसरे दिन भी गुरु जी को पसंद नहीं आए इसके बाद उन्होंने तीसरे दिन फिर से बनाए फिर गुरु जी रामा जी के पास पहुंच कर बोले कि तुमने आज भी अच्छा नहीं बनाया यह मेरे बैठने योग्य नहीं है इसके बाद रामा जी ने विचार किया कि अधिक उम्र हो जाने के कारण इनका दिमाग हिल गया है इतना अच्छा बनने के बाद भी इन्हें पसंद नहीं आया और इसे तोड़ने के लिए कह रहे हैं इसके बाद रामा जी गुरु जी से बोले कि अब मैं इस थडे को नहीं तोडूंगा आप बैठो या ना बैठो इसके बाद गुरु जी गुरु राम दास जी के पास पहुंचे और उनके पास जाकर भी यही शब्द दोहराए उन्होंने कहा कि अब भी थड़ा उनके बैठने योग्य नहीं बन पाया तब रामदास जी बहुत ही विनम्र भाव से कहने लगे कि हे गुरुदेव मैं छोटी बुद्धि का मानव मुझसे इतना महान थड़ा कैसे बन सकता है यदि आप कृपया करोगे तो ही मैं यह थड़ा आपके बैठने योग्य बना सकता हूं इसके बाद रामदास जी उसे तोड़ने लगे तब गुरुजी ने उन्हें रोक लिया और गले से लगा लिया और बोले कि मैं तुम्हारे दिल में बना हुआ थड़ा देखना चाहता था जो कि अब बनकर तैयार हो चुका है तब अमरदास जी ने गुरु रामदास जी से कहा कि गुरु नानक जी की जोत तुम्हारे हृदय में विराजमान होते देख रहा हूं वही जोत अब से संसार के लोगों को तुम्हारे अंदर से दिखाई देगी | गुरु राम दास जी का इतिहास |
समाज कल्याण के कार्य
इसके बाद 1574 ईस्वी में गुरु अमर दास जी ने गुरु रामदास जी को गुरु गद्दी सौंप दी तब से यह सिक्खों के चौथे गुरु कहलाए इन्होंने अपने गुरु जी के सपनों को पूरी तरह से साकार किया और इन्होंने “अमृतसर शहर” की स्थापना की और बहुत से अमृत सरोवर का निर्माण करवाया गुरु रामदास जी से जितनी अमृत सरोवर की सेवा हुई उतनी की और बाद में इसके निर्माण का कार्य अपने पुत्र अर्जुन देव से पूरा करवाया इन्होंने ही “हरमंदर साहेब” की नीव रखी थी इन्होंने ही इस गुरुद्वारे में चारों दिशाओं में अलग-अलग दरवाजे बनाए थे जो कि इस बात का प्रतीक है कि हर धर्म के लोगों के लिए श्री हरमंदिर साहिब के दवार हमेशा खुले रहेंगे यह गुरुद्वारा सिखों का धार्मिक केंद्र बन गया और धीरे-धीरे अमृत शहर एक व्यापारिक केंद्र बनता गया उन्होंने मानवता की भलाई के लिए बड़े-बड़े काम किए थे जिसके कारण इनसे लोग बहुत ही प्रभावित हुए इन्होंने गुरु नानक जी के पंथ पर चलते हुए पहले लंगर फिर संगत और भक्ति का प्रभाव चलाया और धार्मिक यात्राओं को इन्होंने बढ़ावा दिया था यह हिंदी, उर्दू, संस्कृत भाषाओं के ज्ञाता थे इन्होंने 30 रागों में 678 शब्दों की रचना की थी “अनंत काराच” इनके द्वारा रचित है | गुरु राम दास जी का इतिहास |
गुरु राम दास जी की मृत्यु
इसके बाद 1581 ईसवी में यह अमृतसर से गोईदीवाल में अपने परिवार सहित आ गए इन्होंने सर्जन खंड जाने से पहले अपने पुत्र गुरु अर्जुन देव जी को गुरु गद्दी सौंप दी थी और सिखों का पांचवा गुरु नियुक्त कर दिया इन्होंने अपना शरीर त्यागने से पहले सारी संगत को एक खास संदेश दिया कि उनके जाने के बाद गुरु अर्जुन देव जी को पांचवा गुरु स्वीकार करेंगे क्योंकि गुरु नानक देव जी की पांचवी जोत गुरु अर्जुन देव जी में प्रकट हो चुकी है जो भी अपने गुरु अर्जुन देव से ईर्ष्या का भाव रखेगा वह इस संसार के समुंदर से कभी पार नहीं हो सकेगा और उन्होंने कहा कि मेरे शरीर त्यागने के बाद कोई भी विलाप नहीं करेगा बल्कि शब्दवाणी करनी है इनका अंतिम संस्कार व्यास नदी के किनारे किया गया इनकी महानता सूर्य की किरणों के समान दूर-दूर तक फैलती गई
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