काशी विश्वनाथ का इतिहास, काशी नगर की स्थापना, रामनगर की स्थापना, काशी का नाम वाराणसी क्यों पड़ा, पौराणिक कथा
काशी विश्वनाथ का इतिहास
वाराणसी के करीब 23000 मंदिर में काशी विश्वनाथ मंदिर का विशेष स्थान है यह मंदिर हिंदू धर्म की पवित्र 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है आज जो मंदिर है वह 1780 में इंदौर की अहिल्या बाई होल्कर ने बनवाया था यहां 1839 में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोना दान दिया था ज्ञानवापी मस्जिद को मुगल शासक औरंगजेब ने मंदिर तोड़कर बनवाया था इसके अलावा यहां अलमगीर मस्जिद है इसे भी औरंगजेब ने मंदिर तोड़कर बनवाया था | काशी विश्वनाथ का इतिहास |
काशी नगर की स्थापना
विशेश्वर का एक नाम विश्वनाथ भी है यह ज्योतिर्लिंग काशी के मध्य में स्थित है काशी भारत के प्राचीनतम नगरों में से एक है बीच के काल में इसे ‘बनारस’ के नाम से पुकारा जाता था तीर्थ के रूप में वाराणसी का महत्वपूर्ण स्थान है प्रलय काल में भी काशी का कोई नुकसान नहीं हुआ था भगवान शिव ने इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लिया था अगस्त्य ऋषि के द्वारा की गई विश्वेश्वर की आराधना प्रसिद्ध है काशी को सृष्टि की आदिस्थली भी माना जाता है ऋग्वेद के तृतीय और सप्तम मंडल में इसका उल्लेख मिलता है काशी नगरी में 84 घाट स्थित है यह अपने संस्कृतिक और अपने वैभव के कारण पूरे विश्व में प्रसिद्ध है
यहां पर लाखों करोड़ों भगत इसकी अलौकिक सुंदरता को देखने के लिए आते हैं हिंदू धर्म के अलावा जैन और बौद्ध धर्म में भी इस स्थान को पवित्र माना गया है काशी नगर की स्थापना भगवान शिव ने 5000 वर्ष पूर्व की थी वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसका धार्मिक महत्व से अटूट रिश्ता है काशी भारत का सैकड़ों वर्षो से सांस्कृतिक और धार्मिक केंद्र रहा है काशी का नाम 1956 में बनारस से वाराणसी हो गया आज भी बड़ी संख्या में लोग इसे काशी और बनारस के नाम से बुलाते हैं
रामनगर की स्थापना
वाराणसी 18 वीं शताब्दी में स्वतंत्र काशी राज्य बन गया और बाद के ब्रिटिश शासन के अधीन यह प्रमुख व्यापारिक और धार्मिक केंद्र रहा 1910 में ब्रिटिश प्रशासन ने वाराणसी को एक नया भारतीय राज्य बनाया और रामनगर को इसका मुख्यालय बनाया काशी नरेश अभी भी रामनगर किले में रहते हैं यह किला वाराणसी नगर के पूर्व में गंगा के तट पर बना हुआ है काशी नरेश का एक अन्य महल चेत सिंह महल है यह शिवाला घाट के निकट महाराजा चेत सिंह ने बनवाया था रामनगर किला और इसका संग्रहालय अब बनारस के राजाओं की ऐतिहासिक धरोहर रूप में सुरक्षित है और 18वीं शताब्दी से काशी नरेश का आधिकारिक आवास रहा है आज भी काशी नरेश नगर के लोगों में सम्मानित है
यह नगर के धार्मिक अध्यक्ष माने जाते हैं और यहां के लोग इन्हें भगवान शिव का अवतार मानते हैं नरेश नगर के प्रमुख सांस्कृतिक संरक्षण एवं सभी बड़ी धार्मिक गतिविधियों के अभिन्न अंग रहे हैं वाराणसी में विभिन्न कुटीर उद्योग है जिनमें बनारसी रेशमी साड़ी, कपड़ा उद्योग, कालीन उद्योग एवं हस्तशिल्प प्रमुख है बनारसी पान की अपनी अलग पहचान है भारतीय रेल का डीजल रेल इंजन कारखाना भी वाराणसी में स्थित है वाराणसी में 5 विधानसभा क्षेत्र हैं इनमें रोहनिया, वाराणसी उत्तर, वाराणसी दक्षिण, वाराणसी छावनी और सेवापुरी प्रमुख है वाराणसी में करीब 3300 हिंदू मंदिर है | काशी विश्वनाथ का इतिहास |
काशी का नाम वाराणसी क्यों पड़ा
इस पवित्र शहर का नाम वरुणा और असी के नाम पर रखा गया है वरुणा नदी और ऐसी नदी दोनों ही वाराणसी से गुजरती है वाराणसी से कई छोटी-बड़ी नदियां गुजरती है लेकिन इन दो नदियों का शहर के साथ कुछ अलग ही लगाव है यह दोनों नदियां शहर में बहने वाली छोटी नदियों में शुमार है वाराणसी में वरुणा नदी उत्तर में गंगा नदी के साथ मिलती है तो असि नदी दक्षिण में गंगा से मिलती है वरुणा और असि नदियों के अलावा पवित्र गंगा नदी भी वाराणसी से होकर गुजरती है वाराणसी को मंदिरों का शहर, भारत के धार्मिक राजधानी, भगवान शिव की नगरी, दीपों का शहर, ज्ञान नगरी जैसे नामों से भी जाना जाता है
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है भारत के कई दार्शनिक कवि ,लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, शिवानंद गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रविशंकर, गिरजा देवी, पंडित हरिप्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खान आदि कुछ प्रमुख है गोस्वामी तुलसीदास ने हिंदू धर्म का परम पूज्य ग्रंथ “रामचरितमानस” यही लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन बनारस के पास सारनाथ में दिया था | काशी विश्वनाथ का इतिहास |
पौराणिक कथा
मगध का राजा जरासंध बहुत ही क्रूर राजा था उसके पास अनगिनत सैनिक और दिव्य अस्त्र-शस्त्र थे यही कारण था कि उसके आसपास के सभी राजा उसके साथ मित्रता का भाव रखते थे जरासंध की अस्थि और प्रशस्ति नाम की दो पुत्रियां थी उनका विवाह मथुरा के राजा कंस के साथ हुआ था कंस अत्यंत पापी और दुष्ट राजा था वह प्रजाप्रभुत्व अधिक अत्याचार करता था भगवान श्री कृष्ण ने प्रजा को उसके आंतक से बचाने के लिए उसका वध कर दिया था अपने दामाद की मृत्यु का समाचार सुनकर जरासंध बहुत अधिक क्रोधित हो उठा प्रतिशोध की ज्वाला में उसने मथुरा पर अनेकों बार आक्रमण किया किंतु भगवान श्री कृष्ण ने उसे हर बार पराजित कर दिया
एक बार जरासंध ने कलिंग राज पौंड्रक और काशीराज के साथ मिलकर मथुरा पर आक्रमण किया लेकिन भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें भी पराजित कर दिया इस युद्ध में जरासंध तो भाग गया, परंतु पौंड्रक और काशीराज मारे गए काशीराज की मृत्यु के बाद उसका पुत्र काशी राज बना उसने श्री कृष्ण ने से बदला लेने का प्रण लिया व श्रीकृष्ण की शक्तियों के बारे में जानता था इसलिए उसने कठिन तपस्या कर कर भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया इसके बाद भगवान शिव ने उसे मंत्रों के कृत्य प्रदान की और कहा कि तुम इसे जिस भी दिशा में भेजोगे उसे यह जलाकर राख कर देगी
इसके बाद भगवान शिव ने कहा ध्यान रहे इसका प्रयोग किसी भी ब्राह्मण भगत पर प्रयोग मत करना इसके बाद काशीराज ने भगवान श्री कृष्ण का वध करने के लिए कृतिका को द्वारिका की ओर भेजा लेकिन काशीराज को यह पता नहीं था कि भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण है इसलिए वह द्वारिका पहुंचकर भी भगवान श्रीकृष्ण का कुछ नहीं कर पाई इसके बाद भगवान श्री कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र उस कृतिका की ओर छोड़ दिया अपने प्राणों को संकट में देखकर कृत्य भयभीत होकर काशी की ओर भागी सुदर्शन चक्र उसका पीछा करते हुए काशी पहुंचा सुदर्शन चक्र ने कृत्य को भस्म कर दिया परंतु फिर भी उसका क्रोध शांत नहीं हुआ और उसने काशी को जलाकर राख कर दिया कालांतर में वारा और नसी नाम की 2 नदियां थी उनके मध्य में यह नगर पुनः स्थापित हुआ वारा और असी नदियों के मध्य होने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ गया इस प्रकार काशी का वाराणसी के रूप में पुनर्जन्म हुआ | काशी विश्वनाथ का इतिहास |