लिंगराज मंदिर का इतिहास, लिंगराज मंदिर की विशेषता, लिंगराज मंदिर की पूजा पद्धति, लिंगराज मंदिर उत्सव
लिंगराज मंदिर का इतिहास
लिंगराज मंदिर उड़ीसा की राजधानी भुनेश्वर मे स्थित है यह हिंदू धर्म के सबसे प्रमुख और प्राचीन धार्मिक स्थलों में से एक है यह मंदिर अपने धार्मिक महत्व के लिए ही नहीं, बल्कि अपनी अद्भुत बनावट के लिए भी लोकप्रिय है
यह मंदिर भगवान त्रिभूवनेश्वर को भी समर्पित है इसे ययाति केसरी ने 11वीं शताब्दी में बनवाया था श्री लिंगराज मंदिर को जगन्नाथ धाम पुरी का सहायक शिव मंदिर माना जाता है जगन्नाथ धाम आने वाले प्रत्येक भगत को अपनी यात्रा को पूर्ण करने के लिए इस मंदिर के दर्शन जरूर करने चाहिए यहां आधे श्री विष्णु और आधे भगवान शिव का त्रिभुवनेश्वर रूप है, इन्हें हरि -हर भी कहा जाता है
यह इस शहर के प्राचीन मंदिरों में से एक है हालांकि भगवान श्री भुवनेश्वर को समर्पित इस मंदिर का वर्तमान स्वरूप 1090- 1104 ईस्वी में बना किंतु इसके कुछ हिस्से 1400 वर्ष से भी ज्यादा पुराने हैं इस मंदिर का वर्णन छठी शताब्दी के लेखों में भी आता है लिंगराज मंदिर को ययाति केसरी ने 615 – 657 ईसवी में बनवाया था वास्तु शिल्प की दृष्टि से मंदिर की बनावट भी बेहद उत्कृष्ट है और यह भारत के कुछ बेहतरीन गिने-चुने हिंदू मंदिरों में से एक है लिंगराज मंदिर कुछ कठोर परंपराओं का अनुसरण भी करता है और गैर हिंदुओं को मंदिर के अंदर प्रवेश की अनुमति नहीं देता मंदिर के ठीक बगल में एक ऊंचा चबूतरा बनाया गया है, जिससे दूसरे धर्म के लोग मंदिर को देख सकते हैं | लिंगराज मंदिर का इतिहास |
लिंगराज मंदिर की विशेषता
धार्मिक कथा के अनुसार लेटी तथा वशी नाम के दो राक्षसों का वध देवी पार्वती ने यहीं पर किया था संग्राम के बाद जब उन्हें प्यास लगी तो भगवान शिव जी ने कूप बनाकर सभी पवित्र नदियों को योगदान के लिए यहीं पर बुलाया यहीं पर बिंदु सागर सरोवर भी स्थित है तथा इसके निकट ही लिंगराज का विशालकाय मंदिर स्थित है माना जाता है कि यहां पर मध्ययुग में 7000 से अधिक पूजा स्थल थे
उनमें से अब लगभग केवल 500 मंदिर ही शेष बचे हैं लिंगराज का अर्थ असल में लिंगम के राजा से होता है जो यहां भगवान शिव को कहा गया है इस मंदिर की ऊंचाई 55 मीटर है पूरे मंदिर में अद्भुत नक्काशी की गई है मंदिर के प्रत्येक शीला पर कारीगरी और मूर्तिकला का चमत्कार है इस मंदिर का शिखर भारत के प्राचीनतम मंदिरों के शिखर से सबसे प्रारंभिक शिखर माना जाता है इसका शीर्ष चालुक्य के मंदिरों के शिखरों पर बने छोटे गुमदो के भांति नहीं है
इस मंदिर के प्रत्येक पत्थर पर कोई न कोई नक्काशी की गई है इस मंदिर में जगह-जगह मानव कृतियों और पशु पक्षियों से संबंधित है चित्रकारी की गई है इस मंदिर के गर्भ गृह को श्री मंदिर तथा उसके समक्ष मंडप को जगमोहन कहा गया है मंदिर के ऊपर के शिखर को ‘रेखादेउल’ तथा जगमोहन के शिखर ‘कोभद्र’ के नाम से संबोधित किया गया है जगमोहन उड़ीसा मंदिरों के आवश्यक मंडप भी बनाए गए जिन्हें नाटमंदिर के नाम से जाना जाता है
नाटमंदिर में देवता को प्रसन्न करने के लिए नृत्य गान तथा भोग मंडप या मंदिर में देवता को उपहार चढ़ाए जाते हैं यह मंदिर 1800 इसवी तक लगभग निर्मित हुआ था यह मंदिर उड़ीसा शैली का ही नहीं वरन भारत का एक प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण मंदिर है लिंगराज मंदिर द्वितीय वर्ग के पूर्ण विकसित स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है यह मंदिर 520 फुट लंबी और 465 फुट चौड़ी दीवार के घेरे में स्थित है
माता पार्वती को भुनेश्वरी देवी भी कहा जाता है शायद इसीलिए इस स्थान का नाम भुनेश्वर पड़ा गणेश कार्तिकेय तथा गौरी के तीन छोटे मंदिर भी मुख्य मंदिर के विमान से सलंगन है गोरी मंदिर में पार्वती की काले पत्थर की बनी प्रतिमा है मंदिर का प्रांगण 150 मीटर वर्गाकार का है तथा कलश की ऊंचाई 40 मीटर है लिंगराज मंदिर को गहरे शेड बलुआ पत्थरों का इस्तेमाल कर निर्माण किया गया है यह करीब 250000 वर्ग फुट के विशाल क्षेत्र में बना अद्भुत मंदिर है
इसका मुख्य द्वार पूर्व की तरफ है, जबकि अन्य छोटे उत्तर और दक्षिण दिशा की तरफ मौजूद है वास्तुकला की दृष्टि से लिंगराज मंदिर जगन्नाथ पुरी मंदिर और कोणार्क मंदिर लगभग एक जैसी विशेषताएं समेटे हुए हैं बाहर से देखने पर मंदिर चारों ओर से फूलों के मोटे गजरे पहना हुआ सा दिखाई देता है मंदिर के 4 हिस्से हैं मुख्य मंदिर और इसके अलावा यज्ञशाला भोग मंडप और नाट्यशाला भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर कलिंग वास्तु शैली और उड़ीसा शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है | लिंगराज मंदिर का इतिहास |
लिंगराज मंदिर की पूजा पद्धति
लिंगराज मंदिर की पूजा पद्धति के अनुसार सर्वप्रथम बिंदु सरोवर में स्नान किया जाता है फिर छत्रपति अनंत वासुदेव के दर्शन किए जाते हैं जिनका निर्माण काल 9वी से 10 वीं सदी का रहा है गणेश पूजा के बाद गोपाल नी देवी फिर शिव जी के वहान नंदी की पूजा इसके बाद लिंगराज के दर्शन के लिए मुख्य स्थान में प्रवेश किया जाता है
जहां 8 फीट मोटा तथा करीब 1 फीट ऊंचा ग्रेनाइट पत्थर का स्वयंभू लिंग स्थित है शिवलिंग का बाहरी रूप पारंपरिक शिवलिंग जैसा गोलाकार है जिसमें से एक और से पानी जाने का मार्ग है लेकिन बीचो-बीच लिंग न होकर चांदी का शालिग्राम है जो विष्णु जी है गहरे भूरे लगभग काली शिवलिंग की काया के बीच में सफेद शालिग्राम जैसे शिव के हृदय में विष्णु समाए हैं
हरि है विष्णु जिन्हें शिव ने हरा है, इसी से इन्हें हरिहर कहा जाता है यहां की विशेषता यह है कि शिव और विष्णु एक साथ होने के कारण आक के फूल और तुलसी एक साथ चढ़ाए जाते हैं लिंगराज मंदिर के विशाल प्रांगण में अनेकों देवी-देवताओं के छोटे-छोटे मंदिर हैं- गणेश, पार्वती, महालक्ष्मी, दुर्गा, काली, नागेश्वर, राम, हनुमान, शीतला माता, संतोषी माता, सावित्री, यमराज लिंगराज मंदिर के पास पाप विनाशिनी जहां कुंड है | लिंगराज मंदिर का इतिहास |
लिंगराज मंदिर उत्सव
यहां शिवरात्रि पर विशेष उत्साह होता है जिसमें लाखों श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है शिवरात्रि का मुख्य उत्सव रात के दौरान होता है जब भगत जन लिंगराज मंदिर के शिखर पर महाद्वीप को प्रज्वलित करने के बाद अपना व्रत खोलते हैं इसके बाद यहां चंदन समारोह एवं चंदन यात्रा का उत्सव भी बेहद धूमधाम से किया जाता है
चंदन समारोह इस मंदिर में करीब 22 दिन तक चलने वाला महापर्व है इस मंदिर की महिमा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मंदिर में रोजाना 6 हजार लोग लिंगराज के दर्शन के लिए आते हैं और शिवरात्रि के समय यह संख्या दो लाख से अधिक पर्यटकों तक पहुंच जाती है प्रतिवर्ष अप्रैल महीने में यहां रथ यात्रा आयोजित होती है लिंगराज मंदिर आप वायु मार्ग, रेल और सड़क तीनों मार्ग द्वारा आसानी से पहुंच सकते हैं | लिंगराज मंदिर का इतिहास |