महाराजा अग्रसेन का इतिहास

महाराजा अग्रसेन का इतिहास, महाराजा अग्रसेन का जन्म, महाराजा अग्रसेन के गुरु, महाराजा अग्रसेन का विवाह, प्रताप नगर की रक्षा, गोत्रों का निर्माण, महाराजा अग्रसेन की मृत्यु

महाराजा अग्रसेन का इतिहास

महाराजा अग्रसेन का जन्म एक क्षत्रिय कुल में हुआ था महाराजा अग्रसेन एक पौराणिक, कर्म योगी ,लोकनायक, समाजवाद के प्रणेता, युगपुरुष, तपस्वी ,राम राज्य के समर्थक व महादानी थे महाराजा अग्रसेन बचपन से भी अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे वह एक धार्मिक शांतिदूत, प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी, करुणानिधि व सभी जीवो से प्रेम और स्नेह रखने वाले दयालु राजा थे अग्रसेन सौर वंश के एक वेश्या राजा थे जिन्होंने अपने लोगों के लाभ के लिए ‘वानिका’ का धर्म अपनाया था 

 महाराजा अग्रसेन का जन्म

जब द्वापर युग अपनी चरम सीमा पर था और कलयुग की शुरुआत होने वाली थी तब महाराज अग्रसेन का जन्म हुआ अग्रवाल जी सूर्यवंश राम के ही वंशज है राम के 2 पुत्र लव और कुश थे महाराज अग्रसेन ‘कुश’ के 34वें वंशज थे महाराजा अग्रसेन का जन्म 5204 साल पहले हुआ था उस समय प्रताप नगर के महाराजा “वल्लभ सेन” थे उनकी पत्नी का नाम ‘भगवती देवी’ था “अश्विन शुक्ल एकम” के दिन माता ‘भगवती’ ने एक सुंदर से बच्चे को जन्म दिया जिसका नाम अग्रसेन रखा गया इस समय प्रताप नगर हरियाणा और राजस्थान के बीच सरस्वती नदी के किनारे स्थित है | महाराजा अग्रसेन का इतिहास |

महाराजा अग्रसेन के गुरु 

उनके पिताजी बालक अग्रसेन को मुनि ‘तांडे’ के पास लेकर गए उनकी प्रारंभिक शिक्षा उन्हीं के आश्रम में हुई थी यहीं पर अग्रसेन ने एक अच्छे शासक बनने के गुण प्राप्त किए थे जब बालक अग्रसेन 15 वर्ष के थे तब उनके पिता वल्लभ सेन उन्हें महाभारत के युद्ध में पांडवों की ओर से लड़ने के लिए लेकर गए थे और इस युद्ध में वल्लभ सेन भीष्म पितामह के बाणों से वीरगति को प्राप्त हो गए

अपने पिता की मृत्यु के बाद अग्रसेन को बहुत अधिक दुख पहुंचा माना जाता है कि उस समय भगवान श्री कृष्ण ने अग्रसेन को शौक से उभरने का ज्ञान दिया था और अपने पिता का राजकाज संभालने का निर्देश दिया था इसके बाद श्री कृष्ण की आज्ञा से अग्रसेन ने राजगद्दी पर बैठना स्वीकार कर लिया जैसे ही समय बीतता गया वैसे ही अग्रसेन जन-जन के प्रिय राजा बनते गए वह बड़े ही दयालु और प्रजा  रक्षक राजा थे प्रजा की रक्षा के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे वह प्रजा को अपने बच्चों की तरह मानते थे | महाराजा अग्रसेन का इतिहास |

महाराजा अग्रसेन का विवाह 

जब अग्रसेन जी विवाह के योग्य हुए तब वह एक विवाह स्वयंबर में गए नागराज कुमुद ने अपनी सुंदर विवाह योग्य पुत्री  माधवी के विवाह के लिए एक सुंदर स्वयंबर का आयोजन किया इस स्वयंबर में ना केवल राजा महाराजा बल्कि नाग, गंधर्व, मानव और देवता गण भी आए हुए थे इस स्वयंबर में सभा सजी हुई थी और इस सभा में देवताओं के राजा इंद्र भी शामिल थे

किंतु देवी माधवी ने सभी को छोड़कर अग्रसेन को वर के रूप में चुना जब माधवी ने अग्रसेन को अपने वर्क के रूप में चुना तो इंद्रदेव को अपना अपमान महसूस हुआ वह क्रोधित होकर वहां से चले गए इंद्रलोक में जाने के बाद इंद्रदेव ने प्रतापनगर में अकाल की स्थिति बना दी प्रताप नगर की जनता भूख प्यास से तड़पने लगी अग्रसेन जी ने उस समय अपने राजकोस के भंडार प्रजा के लिए खोल दिए अपनी प्रजा की ऐसी दशा को देखकर अग्रसेन जी बहुत ही दुखी थे क्योंकि उन्होंने भोजन की व्यवस्था तो प्रजा के लिए कर ली थी परंतु पानी की व्यवस्था नहीं कर पा रहे थे क्योंकि इंद्रदेव ने कई वर्षों तक बारिश नहीं की थी | महाराजा अग्रसेन का इतिहास |

प्रताप नगर की रक्षा 

अग्रसेन जी ने प्रतापनगर को इस संकट से बचाने के लिए माता ‘लक्ष्मी’ की आराधना करनी शुरू कर दी माता लक्ष्मी अग्रसेन जी की कुलदेवी थी अग्रसेन जी की कठोर तपस्या से माता लक्ष्मी खुश हुई और उन्होंने अग्रसेन जी को दर्शन दिए और इस समस्या का हल बताया माता लक्ष्मी ने अग्रसेन जी को आदेश दिया कि यदि तुम ‘कोल्हापुर’ के राजा नागराज महीरथ की पुत्री से विवाह कर लेते हो तो नागराज महीरथ की शक्तियां तुम्हें प्राप्त हो जाएगी और तुम इंद्र से आसानी से विजय प्राप्त कर सकते हो

राजा बालक अग्रसेन एक विवाह में ही विश्वास रखते थे परंतु माता लक्ष्मी के आदेश और प्रजा की रक्षा के लिए उन्होंने दूसरा विवाह करना स्वीकार कर लिया इसके बाद उन्होंने नागराज महीरथ की पुत्री से दूसरा विवाह किया और इंद्र देव को विवश होकर वर्षा करनी पड़ी इस प्रकार अग्रसेन जी ने प्रतापनगर को अकाल से बचा लिया था अग्रसेन जी के दो-दो नागवंश से संबंध हो जाने के बाद उनके राज्य में सुख समृद्धि बढ़ने लगी और इंद्र देव को भी अपनी गलती का एहसास हो गया और उन्होंने अग्रसेन जी के सामने मित्रता का प्रस्ताव रखा जिसे अग्रसेन जी ने स्वीकार कर लिया था

अग्रसेन जी अपनी दोनों पत्नियों के साथ सुखी जीवन जी रहे थे तभी उनके मन में एक नए राज्य का विस्तार करने का विचार आया वह बिना किसी युद्ध के नए राज्य का विस्तार करना चाहते थे वह अपने नए राज्य के लिए अपनी पत्नी माधवी के साथ भ्रमण पर निकल गए भ्रमण करते समय वह एक जंगल की ओर निकल गए वहां पर उन्होंने एक शेरनी को जन्म देते हुए देखा उस समय महाराजा अग्रसेन अपने हाथी पर सवार थे शेरनी के शावक ने अपनी मां की और संकट को समझ कर हाथी पर छलांग लगा दी

इसके बाद महल में जाने के बाद अग्रसेन जी ने इस घटना को ऋषि-मुनियों को बताया इसके बाद उनकी सलाह पर अग्रसेन जी ने उस जगह पर अपने नए राज्य की नींव रखी जहां पर शेरनी ने शावक को जन्म दिया था अग्रसेन जी ने अपने नए राज्य का नाम ‘अग्रोध्य’ रखा जिस जगह शावक का जन्म हुआ था उस जगह अग्रोहा नगर की स्थापना की गई अग्रोहा वर्तमान में अग्रवालों का तीर्थ स्थान है यह स्थान अग्रवाल समाज के लिए पांचवें धाम के रूप में पूजा जाता है | महाराजा अग्रसेन का इतिहास |

गोत्रों का निर्माण 

इसके बाद अग्रसेन जी ने धीरे धीरे अपने साम्राज्य को 18 गणों में विभाजित कर दिया और एक विशाल राज्य की स्थापना कर दी एक दिन महर्षि गर्ग ने अग्रसेन जी को 18 गणपतिओं के साथ 18 यज्ञ करने का सुझाव दिया महर्षि गर्ग के सुझाव के बाद अग्रसेन जी ने 18 यज्ञों की अनुमति दे दी इसके बाद यज्ञ शुरू किए गए और प्रथम यज्ञ को करने के लिए महर्षि गर्ग स्वयं पुरोहित बने उन्होंने सबसे बड़े राजकुमार विभु को “गर्ग गोत्र” से दीक्षित किया और इस तरह अग्रसेन जी के साढे 17 गोत्रों का निर्माण हुआ

इस यज्ञ में 17 यज्ञ पूरे हो चुके थे और 18वें यज्ञ में जीवित घोड़े की बलि दी जानी थी जब जीवित घोड़े की बलि दी जा रही थी तब घोड़े को तड़पता हुआ अग्रसेन जी ने देख लिया और उन्होंने उस यज्ञ को बीच में ही रुकवा दिया और पूरे राज्य में यह घोषणा कर दी कि आज के बाद मेरे राज्य में कोई भी व्यक्ति यज्ञ में किसी भी पशु की बलि नहीं देगा इस प्रकार 18 यज्ञ अधूरा ही रह गया उस समय यज्ञ में पशु बलि अनिवार्य थी

इसके बाद ऋषि-मुनियों ने महाराजा अग्रसेन को समझाया कि इस यज्ञ के बिना आपका एक गोत्र अधूरा ही रह जाएगा इस पर महाराजा अग्रसेन ने कहा यदि एक गोत्र अधूरा रहता है तो मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता परंतु आज के बाद किसी भी पशु की बलि नहीं दी जाएगी और इस प्रकार एक गोत्र अधूरा ही रह गया 

राज्य का विस्तार

 एक बार अग्रोहा में अकाल पड़ गया और महाराजा अग्रसेन अपना वेश बदलकर अपने राज्य का भ्रमण कर रहे थे भ्रमण करते समय वह अग्रोहा आ गए और एक खिड़की में से छुपकर देखने लगे उन्होंने देखा कि उस घर में चार सदस्यों का ही खाना बना था और एक सदस्य और आ गया एक सदस्य और आ जाने के बाद उस घर में कोई और खाना नहीं बचा था इसके बाद घर के मुखिया ने सभी थालियों में से थोड़ा-थोड़ा भोजन निकालकर पांचवी थाली भी बना दी

इस घटना से महाराजा अग्रसेन बहुत ही प्रभावित हुए इसके बाद उन्होंने एक ईंट और एक रुपए का सिद्धांत शुरू किया उन्होंने अपने राज्य में यह घोषणा करवा दी कि आज के बाद यदि हमारे राज्य में कोई व्यक्ति नया आता है तो उसे सभी एक- एक ईट और ₹1 देंगे जिससे उसका घर बन जाएगा और वह सुखी से जीवन व्यतीत करेगा और इस प्रकार उन्होंने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू कर दिया | महाराजा अग्रसेन का इतिहास |

महाराजा अग्रसेन की मृत्यु 

महाराजा अग्रसेन ने बिना किसी युद्ध के सुखी पूर्वक जीवन 108 वर्ष तक व्यतीत किया 1 दिन उनकी कुलदेवी माता लक्ष्मी ने उन्हें इस धरती से विदा लेने के लिए कहा इसके बाद महाराजा अग्रसेन अपने जेष्ठ पुत्र ‘विधु’ को गणराज्य सौंपकर तपस्या करने चले गए और वही तपस्या के दौरान अपना नश्वर शरीर छोड़कर परमधाम को चले गए तभी से महाराजा अग्रसेन के जन्म को अश्विन शुक्ल एकम के दिन जयंती के रूप में मनाया जाने लगा आज भी महाराजा अग्रसेन जी की पूजा की जाती है | महाराजा अग्रसेन का इतिहास |

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