पानीपत के तीसरे युद्ध का इतिहास 

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पानीपत के तीसरे युद्ध का इतिहास 

पानीपत का तीसरा युद्ध 18वीं शताब्दी में लड़ा गया था इस युद्ध ने एक ही दिन में हजारों योद्धाओं को काल का ग्रास बना दिया था औरंगजेब की मृत्यु के बाद भारत की जमीन पर सीना ताने खड़ा मुगल साम्राज्य अब घुटनों पर आ चुका था दूसरी तरफ मराठों का भगवा परचम अपनी बुलंदी पर लहरा रहा था पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में राजपूताना मालवा मराठों के साथ आकर मिल गए थे उस समय संपूर्ण हिंद की कमान मराठों के हाथ में थी मराठों के लगातार हमलों के कारण मुगल बादशाह कमजोर हो गए थे

उत्तर भारत के अधिकांश इलाके जहां पहले मुगलों का शासन था अब वहां पर मराठों का कब्जा हो चुका था 1758 में पेशवा बाजीराव के पुत्र “बालाजी बाजीराव” ने पंजाब पर विजय प्राप्त करके मराठा साम्राज्य को और अधिक विस्तृत कर दिया था किंतु उनकी जितनी अधिक ख्याति बड़ी उतने ही अधिक उनके शत्रु बढ़ने लगे थे मराठों का परचम अफ़ग़ान की छाती पर लहरा रहा था इस बार मराठों का सामना अफगान के बादशाह अहमद शाह से होना था

अफगान की सीमा पर लहराते हुए मराठों के परचम को अहमद शाह ने एक चुनौती मान लिया इसी के तहत अब्दाली ने साल 1759 को वस्तु और मंगोल जनजातियों को एकत्रित कर एक विशाल सेना का गठन किया इसके बाद अब्दाली इसी सेना के साथ भारत की ओर बढ़ने लगा उसने रास्ते में आने वाले कई छोटे-छोटे राज्यों को नष्ट कर दिया इसी तरह अब्दाली अपनी सेना के साथ आगे बढ़ता रहा अब्दाली के बढ़ते कदमों को रोकने के लिए बहू पेशवा ने एक विशाल सेना के साथ अब्दाली को पानीपत के मैदान में घेर लिया जिसके बाद फरवरी 1761 को आगाज हुआ पानीपत का तीसरा युद्ध जब अटक से कटक तक मराठों ने अपना भगवा लहराया | पानीपत के तीसरे युद्ध का इतिहास |

वीर शिवाजी का सपना 

सन 1707 के बाद छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा देखा गया संपूर्ण भारत पर मराठा हिंद साम्राज्य के आधिपत्य का स्वपन अब पूर्ण होता प्रतीत हो रहा था 1758 में मराठों ने दिल्ली सहित लाहौर पर भी कब्जा कर लिया था तथा तैमूर शाह को वहां से खदेड़ दिया था अब मराठा साम्राज्य का अधिकार उत्तर में सिंधु की धारा से लेकर हिमालय की पहाड़ियों तक ,और दक्षिण के मैदानों से लेकर अफगान की घाटियों तक फैल चुका था उस समय मराठों की कमान बालाजी बाजीराव के हाथ में थी बालाजी ने तय किया कि दिल्ली के ध्वज से छत्रपति शिवाजी के नाम से हुकूमत कायम की जाए इसी के तहत बालाजी ने अपने पुत्र “विश्वास राव”को दिल्ली के मुगल सिहासन पर बैठाने का पक्का निश्चय किया

उस समय दिल्ली पर मुगलों का नाम मात्र शासन रह गया था और वे सभी मराठों के विस्तृत राज्य को देखकर भयभीत हो रहे थे साल 1758 में पंजाब पर किए गए हमले के बाद लाहौर तक कब्जा करने के बाद मराठों ने वहां के शासक तैमूर शाह को बुरी तरह से पराजित कर भगा दिया था तैमूर शाह अफगानिस्तान के नवाब अब्दाली का पुत्र था यह बात जानने के बाद अब्दाली ने भारत पर आक्रमण करने का अपना मन बना लिया सबसे पहले उसने पंजाब के उन हिस्सों में आक्रमण किया जहां पर मराठा सेना बहुत कम थी इसके बाद वह विशाल सेना के साथ आगे बढ़ा इसके बाद अब्दाली अपनी विशाल सेना के साथ दिल्ली में रुक गया जब मराठों ने प्रतिघात के स्वर में ललकार लगाई और अब्दाली के खिलाफ आक्रमण का ऐलान कर दिया इस दिन को इतिहास की एक निर्णायक घटना माना जाता है क्योंकि इस दिन मराठों ने ना केवल अब्दाली को पराजित किया था बल्कि उन्होंने बंगाल जाकर बढ़ती जा रही

ब्रिटिश ताकतों को रोकने का भी मन बना लिया था इसके बाद मराठों ने संपूर्ण भारत से विदेशी ताकतों को नष्ट करने की शपथ ली थी उस समय मराठों के पास एक विशाल सेना थी साथ ही उन्हें दूसरे राजाओं के समर्थन की जरूरत थी छत्रपति शिवाजी के समय मराठों के राजपूतों के साथ घनिष्ठ संबंध थे किंतु साल 1750 आते-आते मराठों और राजपूतों के संबंध खराब होने शुरू हो गए वही ब्रिज के शासक सूरजमल मराठों के कट्टर समर्थक जाट और मराठों की मित्रता भी कमजोर पड़ने लगी थी चारों दिशाओं की स्थिति को जानने के बाद अप्रैल 1760 को मराठों की सेना पुणे से दिल्ली की ओर रवाना हुई  यहां से प्रस्थान करते समय मराठा सेना में 50,000 से अधिक पैदल  सैनिक थे आगे बढ़ते समय जैसे मराठों को अपने सहायकों की मदद मिली तो उनकी सेना बढ़ती चली गई ‘इब्राहिम गार्दी’ का भी मराठों की तरफ से इस युद्ध में विशेष योगदान रहा गार्दी के पास 8000 से भी अधिक ऐसे सैनिक थे जो फ्रांसीसी सेना द्वारा प्रशिक्षित थे वह भी मराठों के साथ आ मिले थे

गार्दी के पास 200 उत्कृष्ट बंदूकें युद्ध की तोपे भी थी जिनका उन दिनों विशेष महत्व था मई और जून के लंबे सफर के बाद जब मराठा आगरा पहुंचे तब मल्हार राव होलकर और जूनकोजी सिंधिया भी अपनी सेना के साथ मराठा सेना में शामिल हो गए इसी कड़ी में जो मराठा सेना दिल्ली पहुंची तब उनकी सैन्य शक्ति 2 लाख तक पहुंच चुकी थी वही मुगल बादशाह मराठों की सहायता के लिए पहले से ही संधिबंध थे दूसरी तरफ दिल्ली में मराठों के बहुत कम शुभचिंतक थे अब्दाली ने लूट के मंसूबों से भारत में कदम नहीं रखे थे बल्कि उसका सपना दिल्ली के सिहासन को मुगलों के हाथों से छीनना था इसी के तहत उसने उत्तरी दिल्ली में बसे हुए अफगानीयो को अपनी तरफ कर लिया था | पानीपत के तीसरे युद्ध का इतिहास |

युद्ध के मैदान में तांडव 

मकर सक्रांति के दिन युद्ध में मृत्यु का तांडव हुआ 14 जनवरी 1761 को पानीपत के मैदान में दोनों सेनाएं आमने सामने आई जिसके बाद रण में शुरू हुआ मृत्यु का तांडव इब्राहिम खान की बंदूकों और तोपो ने रण में हाहाकार मचा रखा था ऐसा लग रहा था कि मराठा आज इतिहास लिखेंगे किंतु शाम होते-होते युद्ध की स्थिति पूरी तरह से बदल गई थी दोनों सेनाओं के लगभग 40000 सैनिक काल के ग्रास बन चुके थे इस युद्ध में बहुत से योद्धा वीरगति को प्राप्त हो चुके थे मराठों की हार के बाद अब्दाली सैनिकों को मारते हुए आगे बढ़ने लगा इस युद्ध में मराठों की हार का कारण अब्दाली नहीं बल्कि ठंडा मौसम था क्योंकि उन्हें  युद्ध के मौसम का पता नहीं था जबकि अब्दाली को मौसम के बारे में अच्छी तरह से मालूम था इसलिए उसने पहले से ही अपने सैनिकों को सर्दी की पोशाक पहना दी थी कहा जाता है कि युद्ध के समय मराठों का खाना पानी भी समाप्त हो चुका था इसके बाद भी उन्होंने भूखे प्यासे रहकर इस युद्ध को जारी रखा था | पानीपत के तीसरे युद्ध का इतिहास |

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