स्वामी शिवानंद सरस्वती का जीवन परिचय, स्वामी शिवानंद सरस्वती का जन्म, स्वामी शिवानंद सरस्वती की शिक्षा, स्वामी शिवानंद सरस्वती के गुरु , स्वामी शिवानंद सरस्वती की मृत्यु
स्वामी शिवानंद सरस्वती का जन्म
स्वामी शिवानंद का जन्म दक्षिण भारत के ताम्रपर्णी नदी के किनारे एक छोटे से गांव में 8 सितंबर 1887 को हुआ था इनके पिता का नाम “पी. एस. वेगो अय्यर” था इनके पिताजी एक तहसीलदार थे वे शिवजी के परम भक्त थे इनके पिताजी को लोग महापुरुष के नाम से पुकारते थे इनकी माता श्रीमती “पार्वती अम्मा” ईश्वर में श्रद्धा रखने वाली एक आध्यात्मिक महिला थी
इनके माता-पिता इनके जन्म से बहुत ही खुश थे उन्होंने इनका नाम “कुप्पूस्वामी” रखा बालक कुप्पूस्वामी बहुत दयालु और कुशाग्र बुद्धि के थे बचपन से ही इनके मन में दया दया करुणा कूट-कूट कर भरी हुई थी यह अपनी माता से खाने की चीजें लेकर दरवाजे पर आए हुए जानवरों को खिलाते रहते थे माता पिता के आध्यात्मिक विचारों के कारण वह स्वामी शिवानंद को खाद्य सामग्री बहुत ही प्यार से लाकर दिया करते थे इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव के हाई स्कूल से ही उत्तीर्ण की थी स्वामी शिवानंद हमेशा अपनी कक्षा में प्रथम स्थान पर रहा करते थे इनके समृद्धि बहुत ही अधिक तेज थी यह जो भी याद करते थे वह इन्हें हमेशा याद रहता था
स्वामी शिवानंद सरस्वती की शिक्षा
हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद एस.पी. स्कूल में दाखिला लिया वहां पर इन्होंने शिक्षा के साथ-साथ वाद विवाद और नाटकों में भी भाग लिया था सन 1905 में इन्होंने एक नाटक में अभिनय किया इसके बाद कॉलेज की पढ़ाई करने के बाद कुप्पूस्वामी तंजौर के एक कॉलेज में पहुंच गए और वहां पर चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन में मगन हो गए वहां पर इनकी कुशाग्र बुद्धि को देखकर सभी चकित थे जब छुट्टियों में सभी विद्यार्थी अपने घर जाते थे तब वह कॉलेज में रहकर रोगियों की सेवा करते थे
अपने विद्यार्थी जीवन में यह ऑपरेशन थिएटर में जाकर रोगियों की सेवा करते थे इनकी लगन को देखकर वहां पर मौजूद डॉक्टर इन की बहुत ही तारीफ किया करते थे यहां से एम.बी.बी.एस. की डिग्री प्राप्त करने के बाद कुप्पूस्वामी ने अभ्यास शुरू किया रोगियों की सेवा के साथ-साथ इन्होंने एक चिकित्सा पत्रिका निकालना भी प्रारंभ किया इसके बाद सन् 1913 में यह मलाया पहुंच गए वहां जाने के लिए इन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा था क्योंकि इनके परिजन इन्हें वहां जाने की आज्ञा नहीं दे रहे थे वह ब्राह्मण परिवार थे इसलिए उस समय समुद्र पार कर विदेश में जाना पाप समझा जाता था
वहां जाने के बाद इन्होंने एक राजकीय चिकित्सा में नौकरी कर ली और वहां पर भी इन्होंने अपनी सेवा भाव से शीघ्र ही ख्याति प्राप्त कर ली थी यह सभी के साथ है बड़े ही स्नेह पूर्वक व्यवहार करते थे लोगों के प्रति इनके मन में दया का भाव हमेशा बना रहता था कभी-कभी तो यह पूरी रात जागकर मरीजों की सेवा किया करते थे गरीब लोगों से यह कभी भी पैसे नहीं लेते थे, बल्कि उन्हें ही आहार के लिए पैसे देते थे इतना व्यस्त जीवन होने के बाद भी यह साधु संतों के साथ सत्संग करते रहते थे
साधु संतों के प्रति उनके मन में हमेशा सम्मान की भावना रहती थी एक बार साधु के सत्संग में आकर इनके मन में वैराग्य की भावना उत्पन्न हुई वे पहले ही स्वामी शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद का साहित्य पढ़ते रहते थे यह सत्संग के साथ-साथ योग साधना भी किया करते थे कुछ समय बाद उनके मन में सब कुछ छोड़कर साधना करने का भाव उत्पन्न हुआ और यह अपनी नौकरी छोड़कर1922मे मलाया से वापस भारत आ गए यहां आने के बाद अपना सामान अपने घर पहुंचा कर बिना घर में प्रवेश किए तीर्थ स्थलों का भ्रमण करने के लिए निकल पड़े थे
स्वामी शिवानंद सरस्वती के गुरु
1926 में यह ऋषिकेश पहुंच गए वहां “स्वामी विश्वानंद सरस्वती” के संपर्क में आए इन्हीं शिवानंद स्वामी ने अपना गुरु बनाया और अपनी सन्यास लेने की इच्छा को इनके सम्मुख रखा इसके बाद स्वामी विश्वामित्र ने इन्हें संन्यास की दीक्षा दी और इनका नाम स्वामी शिवानंद सरस्वती रखा इसके बाद स्वामी शिवानंद स्वर्ग आश्रम में रहने लगे और साधना करने लगे यहां पर रहते हुए तपस्या, मौन धारण आदि का अभ्यास करने लगे प्रातः काल गंगा के जल में खड़े होकर तपस्या करना
इनकी दिनचर्या का मुख्य अंग था यह प्रतिदिन 12- 12 घंटे ध्यान करते रहते साधना के साथ-साथ यह अन्य साधुओं की कुटिया में जाकर उनकी निशुल्क चिकित्सा करते थे और औषधियां देते थे इन्होंने अपने विचारों को कार्य रूप देते हुए गरीब व्यक्तियों की सहायता के लिए एक स्थाई अस्पताल खुलवाया था मलाया से अपने खाते में से पैसे मंगवा कर लक्ष्मण झूला के पास 1927में एक धर्मार्थ चिकित्सालय खोला था स्वाध्याय इनकी दिनचर्या का महत्वपूर्ण अंग था इसके बाद इन्होंने अपने विचारों का प्रचार-प्रसार प्रारंभ किया धीरे-धीरे उनके शिष्यों की संख्या बढ़ने लगी थी
यह जहां भी जाते इनके तेजस्वी व्यक्तित्व से प्रभावित होकर बहुत से लोग इन्हें अपने गुरु के रूप में स्वीकार करते थे इसके बाद 1936 में इन्होंने ऋषिकेश में ही दिव्य जीवन संघ Divine life सोसाइटी की स्थापना की इसके माध्यम से इन्होंने वैदिक संस्कृति का विचार प्रसार किया अपने विचारों को जनता तक पहुंचाने के लिए इन्होंने अपने ही आश्रम में एक प्रिंटिंग प्रेस खोली जिस से प्रकाशित साहित्य निशुल्क लोगों में बांटा जाता था इनके शिक्षा में देशी-विदेशी सभी लोग शामिल थे
स्वामी शिवानंद भक्ति, कर्म, योग, साधना सभी में विश्वास रखते थे और इनसे संबंधित विचारों को सरल भाषा में लोगों तक पहुंच जाते थे यह जीवन भर दीन दुखियों की सेवा और धर्म प्रचार के कार्यों में लगे रहे स्वामी शिवानंद ने कई किताबें भी लिखी जैसे कर्म योग गुरु तत्व गुरु तत्व जप योग जीवन में सफलता के रहस्य ध्यान योग बालकों के लिए दिव्य जीवन संदेश ब्रह्मचर्य साधना भगवान श्री कृष्ण के रहस्य विद्यार्थी जीवन में सफलता शिवानंद आत्मकथा अध्यात्म जीवन आदि | स्वामी शिवानंद सरस्वती का जीवन परिचय |
स्वामी शिवानंद का शिष्य
स्वामी सत्यानंद जी इन्हें के परम शिष्य थे जिन्होंने इन्हीं से योग के क्षेत्र में प्रेरणा लेकर एक नई जागृति उत्पन्न की थी एवं बिहार योग विद्यालय की स्थापना की जो योग के क्षेत्र में प्रसिद्ध है जो योग के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दे रही है दिव्यांग विद्यार्थियों की शिक्षा के लिए शिवानंद स्वामी ने निशुल्क व्यवस्था की है तथा उन्हें देश विदेश में जाकर योग प्रचार का अवसर प्रदान किया दिव्य जीवन संघ केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व स्तर पर योग का मानसिक, शारीरिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक स्तर पर सर्वांगीण विकास के लिए निरंतर कार्यरत है
स्वामी शिवानंद सरस्वती की मृत्यु
वे यह चाहते रहे कि ‘दिव्य जीवन संघ’ का अत्यधिक विकास हो जिससे अधिक से अधिक लोग इसका लाभ उठा सके इस प्रकार जन सेवा करते हुए 14 जुलाई 1963 को उन्होंने महा समाधि ली थी | स्वामी शिवानंद सरस्वती का जीवन परिचय |