मीरा बाई का इतिहास और जीवनी हिंदी
मीराबाई का जन्म
मीराबाई का जन्म सन 1498 ईस्वी को राजस्थान मैं पाली जिले के कुड़की गांव में हुआ था इनके पिता जी का नाम रतन सिंह राठौर और इनकी माता जी का नाम वीरकुमारी था इनके पिता जी राजपूत सियासत के शासक थे मीराबाई अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी मीराबाई की बचपन में ही इनकी माता का देहांत हो गया था इसके बाद इनके दादा जी “राव दूदा” ने इनका पालन पोषण किया था मीराबाई के दादा जी भगवान विष्णु के भगत थे इनके दादा जी एक कुशल योद्धा होने के साथ-साथ भगत हृदय वाले भी थे इनके दादा जी पूजा पाठ और धर्म में बहुत अधिक विश्वास रखते थे जिसके कारण मीराबाई साधु-संतों की संगत में बचपन से ही रहने लगी थी बचपन में मीरा की माताजी ने उसे एक भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति दी थी जिसके साथ वह हमेशा खेलती और बातें करती रहती थी | मीरा बाई का इतिहास और जीवनी हिंदी
मीराबाई का विवाह
मीराबाई का विवाह इनके दादा जी ने चित्तौड़ के भोजराज के पुत्र राणा सांगा के साथ 1516 ईसवी में किया था विवाह के कुछ समय बाद राणा सांगा मुगलों के साथ जब युद्ध कर रहे थे तब वीरगति को प्राप्त हो गए थे इसके बाद मीराबाई विधवा हो गई थी मीराबाई बचपन से ही श्री कृष्ण के प्रति प्रेम रखती थी मैं भगवान श्री कृष्ण को ही अपना पति मानती थी उस समय मुगलों का शासन था मुगल हिंदुओं पर बहुत अधिक अत्याचार करते थे मीराबाई चित्तौड़ की महारानी थी
मीराबाई का भक्ति काल का समय
मीराबाई का भक्ति काल बहुत ही उथल-पुथल भरा हुआ था क्योंकि उसी समय में बाबर का हिंदुस्तान पर हमला हो गया जिसके कुछ ही दिनों के बाद बाबर एवं राणा संग्राम सिंह के मध्य खानवा युद्ध हुआ जिसमें राणा सांगा की हार हो गई थी और यहां से हिंदुस्तान की धरती पर हिंदुओं का पतन शुरू हो गया था और देश में धर्म और संस्कृति को बचाना एक बड़ी चुनौती बन गई इन सब की समस्याओं के होने के बावजूद भी मीराबाई श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करती रही कहा जाता है कि मीरा की एक पंक्ति” हरि तुम हरो जन की पीर” को गाते गाते द्वारिका में कृष्ण की मूर्ति से लिपट कर उसी में विलीन हो गई थी | मीरा बाई का इतिहास और जीवनी हिंदी
मीराबाई के गुरु का नाम
मीराबाई के गुरु का नाम “संत कवि रैदास” था मीरा की भक्ति कांता, माधुर्य, दांपत्य भाव की मानी जाती है मीराबाई के पति गुजर जाने के बाद और अधिक भक्ति करने लग गई थी मीराबाई मंदिरों में जाकर कृष्ण भक्तों के साथ नाचने लगती थी इसके बाद मीरा का इस प्रकार नाचना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा उन्होंने मीराबाई को कई बार विष देकर मारने की कोशिश की थी इसके बाद मीराबाई अपने परिवार वालों से परेशान होकर वृंदावन चली गई मीराबाई के जाने के बाद उनकी लोकप्रियता से अभिभूत होकर राणा ने इन्हें वापस आने के लिए कई संदेश दिए परंतु मीराबाई वापस नहीं आई मीराबाई ने अपने सारे सांसारिक बंधन को तोड़ दिया था वह कृष्ण भक्ति की गुणगान किया करती थी मीराबाई जहां भी जाती थी वहां उसे लोगों का सम्मान मिलता था लोगों ने देवी जैसा सम्मान देते थे
मीराबाई की मृत्य
मीराबाई अपने अंतिम दिनों में द्वारका चली गई वहां पर उत्सव चल रहा था और भगत गण उस में मगन थे मीराबाई नाचते-नाचते श्री रणछोड़राय मंदिर में प्रवेश कर गई थी इसके बाद मंदिर के कपाट बंद हो गए जब मंदिर के कपाट खोले गए तो मीराबाई वहां पर नहीं थी उनका चीर मूर्ति के चारों ओर लिपट गया था और मूर्ति अत्यंत प्रकाशित हो रही थी मीराबाई मूर्ति में समा गई थी मीरा बाई का निधन 1548 इसवी में द्वारका में हुआ था | मीरा बाई का इतिहास और जीवनी हिंदी
मीराबाई की रचनाएं
मीराबाई के काव्य रचना में इनका कृष्ण भक्ति प्रेम इनके हृदय की सरलता का स्पष्ट रूप मिलता है भक्ति भजन ही इनकी काव्य रचना है इनकी प्रत्येक पंक्ति सच्चे प्रेम से परिपूर्ण है इनकी इसी प्रेम पूर्ण शैली की वजह से लोग आज भी इनकी पंक्तियां उतनी ही तमन्ना से कहते हैं मीराबाई ने अनेक रचनाएं लिखी थी मीराबाई ने चार काव्य ग्रंथ लिखे थे
1.नरसी जी का मायरा
2.गीत गोविंद का टीका
3.राग गोविंद
4. राग सोरठ
अन्य रचनाएं – मीरा पदावली, मीरा की मल्हार, गरबा गीत
उपनाम– भक्ति के तपोवन की शकुंतला, राजस्थान के मरुस्थल की मंदाकिनी
मीराबाई के पद राजस्थान मिश्रित बृज भाषा में है मीराबाई ने कोई चमत्कार दिखाने के लिए कोई काव्य नहीं रचा मीराबाई के पदों में भगवान के प्रति अनन्य राग देखने को मिलते हैं मीरा का काव्य माधुरी भाव का जीवंत रूप है मीराबाई कृष्ण को अपना पति मानती थी और वह उन्हें के वैराग्य में रहती थी इनके पदों में श्री कृष्ण के प्रति वैराग्य को दिखाया गया है मीराबाई को यह विश्वास था कि वह पिछले जन्म में वृंदावन की गोपियों में से एक थी उनके मन में गोपियों की तरह भगवान के प्रति शारीरिक मिलन था मीराबाई 16वी शताब्दी की भक्ति धारा की एक संत थी वह अपनी भक्ति के द्वारा मोक्ष को प्राप्त करना चाहती थी मीराबाई का मानना था कि आत्मा और परमात्मा मृत्यु के बाद एक हो जाते हैं | मीरा बाई का इतिहास और जीवनी हिंदी
मीराबाई के विचार
1.मीरा कहती है – मेरे तो बस श्री कृष्णा जिसने पर्वत को उंगली पर उठाकर गिरधर नाम पाया उसके अलावा मैं किसी को अपना नहीं मानती जिसके सिर पर मोर का पंख का मुकुट है वही है मेरे पति
2.मीराबाई अपने भजन में भगवान श्री कृष्ण से विनती कर रही है की है श्री कृष्ण मैं दिन रात तुम्हारी राह देख रही हूं मेरी आंखें तुम्हें देखने के लिए बेचैन है मेरे मन को भी तुम्हारे दर्शन की ललक है मैंने अपने नैन केवल तुमसे मिलाए हैं अब यह मिलन टूट नहीं पाएगा तुम आकर दर्शन दे जाओ तुमसे ही मिलेगा मुझे चैन
3.मीराबाई कहती है कि उनका मन हमेशा श्री कृष्ण के चरणों में लीन है, ऐसी कृष्ण जिनका मन शीतल है, जिनके चरणों में ध्रुव है, जिनके चरणों में पूरा ब्रह्मांड है पृथ्वी है और जिन के चरणों में शेषनाग है जिन्होंने गोवर्धन को उठा लिया था यह दासी मीरा का मन उसी हरि के चरणों उनकी लीलाओं में लगा हुआ है
4.बादल गरज कर आ रहे हैं लेकिन हरि का कोई संदेशा नहीं लाए वर्षा ऋतु में मोर ने भी पक्ष ले लिए हैं और कोयल भी मधुर आवाज में गा रही है और काले बादलों की अंधियारी में बिजली की आवाज से कलेजा रोने को है विरह की आपको बढ़ा रहा है मन बस हरि के दर्शन का प्यासा है
5. मीराबाई किसी भी तरह से श्रीकृष्ण के नजदीक रहना चाहती है फिर चाहे वह नौकर बन कर ही क्यों ना रहना पड़े मेरा कहती है कि नौकर बनकर में बगीचा लगाऊंगी ताकि सुबह उठकर रोज आपके दर्शन पा सकूं मेरा कहती है कि वृंदावन की संकरी गलियों में मैं अपने स्वामी की लीलाओं का बखान करूंगी मीराबाई का मानना है कि नौकर बन कर उन्हें 3 फायदे होंगे पहला- उन्हें हमेशा कृष्ण के दर्शन प्राप्त होंगे, दूसरा- उन्हें अपने प्रिय की याद नहीं सताएगी और तीसरा- उनकी भाव भक्ति का साम्राज्य बढ़ता ही जाएगा